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जैन धर्म में प्रतिमा की पूजा होती है लेकिन पूजन के बाद पूजन का विसर्जन होता है प्रतिमा का नहीं.. जैन धर्म में भी है नवरात्रि का महत्व.. वैज्ञानिक संत आचार्य श्री निर्भय सागर जी महाराज..

 जैन धर्म में भी है नवरात्रि  का महत्व -आचार्य निर्भय सागर

दमोह। वैज्ञानिक संत आचार्य श्री निर्भय सागर जी महाराज ने जैन धर्मशाला में प्रातः कालीन धर्म सभा में उपदेश देते हुए कहा नवरात्रि पर्व का महत्व जैन धर्म में भी रहा है। क्योंकि प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान के प्रथम पुत्र भरत चक्रवर्ती जब 6 खंड के अधिपति बनने  दिग्विजय यात्रा के लिए गए तब उन्होंने 9 दिन तक जिनेंद्र भगवान की पूजा अर्चना की थी। जब छह खंडों को जीतकर दिग्विजय यात्रा करके वापस आए तब उन्हें जो नव रत्नों की प्राप्ति हुई थी ,वे सभी रत्न एक एक हजार यक्ष देवी देवताओं से रक्षित थे। अतः उन्होंने जिनेंद्र भगवान की पूजा 9 दिन तक की और यक्ष देवताओं को यथा योग्य भेंट प्रदान करके एवं आदर सम्मान देकर  प्रसन्न किया था ,वह समय अश्विनी शुक्ला  एकम से दसवीं  तिथि तक का ही था। 

अतः जैन दर्शन के अनुसार भरत चक्रवर्ती के द्वारा ही नवरात्रि एवं विजयादशमी प्रारंभ हुई है । नवरात्रि में जो देवियों की पूजा उपासना की जाती है वे 24 तीर्थंकरों की अधिकांश यक्षिणी हैं । जैन दर्शन में अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु परमेष्ठी की आराधना को महत्व दिया गया है। इसलिए नवरात्रि पर्व पर जैन लोग देवी देवताओं का आदर, सत्कार एवं सम्मान स्वरूप भेंट प्रदान  करते हुए भी पूजा पाठ करके आराधना नहीं करते हैं। आचार्य श्री ने कहा अभिषेक पूजन का प्रथम अंग है, पूजन की 6 अंग होते हैं अभिषेक, आवाहन, सन्निधिकरण ,स्थापना ,पूजन एवं विसर्जन। जैन धर्म में प्रतिमा की पूजा होती है लेकिन पूजन के बाद पूजन का विसर्जन होता है प्रतिमा का नहीं। पूजन के लिए सर्वश्रेष्ठ वस्त्र सफेद रंग की माने गए हैं। केसरिया एवं लाल रंग के वस्त्र भी दान पूजा में शुभ माने गए हैं काले नहीं। आचार्य श्री ने कहा मानव को प्रतिदिन  सूर्य प्रकाश का सेवन जरूर करना चाहिए। सूर्य प्रकाश का सेवन करने से शरीर में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है, खून में  आयरन  एवं हड्डियों में कैल्शियम की मात्रा  कम नहीं होती  है ,पाचन तंत्र  अच्छा बना रहता है ।

 आचार्य श्री ने कहा मंदिर की सफाई, पूजा-पाठ की सामग्री का शोधन और अभिषेक पूजन भक्तों को स्वयं करना चाहिए ,नौकरों से नहीं कराना चाहिए । भरत चक्रवर्ती जैसे महापुरुषों ने भी भगवान की पूजा और गुरुओं को आहार दान की क्रिया अपने हाथ से स्वयं की थी ,नौकरों से नहीं कराई।आचार्य श्री ने कहा  मौन की भाषा मूक पशुओं भी समझ लेते है और शिशु भी समझ लेते है। इसलिए यदि आपके पास मीठे प्रशंसा के शब्द ना हो तो मौन मुस्कुराहट प्रदान करें । वाणी उलझा सकती है, मौन मुस्कुराहट उलझन को सुलझा सकती है।


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