धार्मिक राजनीतिकरण लोकतांत्रिक देश के लिए घातक है -आचार्य निर्भय सागर’
दमोह। वैज्ञानिक संत आचार्य श्री निर्भय सागर जी महाराज ने मंगल उपदेश देते हुए कहा लोकतांत्रिक देशों में जैन धर्म को छोड़कर सभी धर्मों का राजनीतिकरण हो चुका है । जैन धर्म का राजनीतिकरण इसलिए नहीं हुआ क्योंकि उनकी आबादी बहुत कम है । जिस धर्म बालों की जितनी आबादी अधिक है उनका उतना अधिक राजनीतिकरण हुआ है। धर्म का राजनीतिकरण लोकतांत्रिक देशों में अनुचित है और घातक है। जिन देशों में मुस्लिम बहुसंख्यक उन देशों में धर्मनिरपेक्षता को बुरा माना जाता है ।लेकिन जिन लोकतांत्रिक देशों में मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं उन देशों में धर्मनिरपेक्षता को उन्होंने कसौटी पर चढ़ा कर रख रखा है । जब तक बहुसंख्यक नहीं हो जाते तब तक हमेशा धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं । उसमें भारत देश के इस्लामिक सबसे ज्यादा अग्रणी है। धर्मों का राजनीतिकरण सिर्फ वोट की नीति के कारण हो रहा है। यही कारण है कि एक संप्रदाय विशेष आबादी बढ़ाने में लगा है।
आचार्य श्री ने कहा जैन धर्म में प्रतीक बनाकर पूजा अर्चना की जाती है। इसी वजह से प्रतिमा स्थापित की जाती है और जल, चंदन, अक्षत, पुष्प, दीप, धूप, फल आदि अष्ट द्रव्य को प्रतीक बनाकर पूजा के समय अर्पण करते हैं । इसका कारण बताते हुए आचार्य श्री ने कहा अरहंत भगवान ने अक्षय पद को प्राप्त कर लिया है । इसलिए अक्षय पद की प्राप्ति मुझे हो ऐसा विचार करके अक्षत समर्पित किया जाता है। चावल या मोती को अक्षत कहते है । चावल सफेद होता है भगवान के शरीर में खून सफेद होता है। भगवान के परिणाम शुक्ल लेश्या अर्थात उज्जवल होते है इसलिए चावल चढ़ाया जाता है। चावल उगता नहीं जैन धर्मा अनुयायी यही सोचता है कि मेरा पुनः जन्म मरण ना हो यह सोचकर चावल चढ़ाया जाता है। चावल गरीब अमीर युवा बाल एवं वृद्ध सभी चावल खा सकते है ।हर देश में उपलब्ध कर सकते हैं। चावल के समान ही भगवान की वाणी, दर्शन हर प्राणी को हर जगह उपलब्ध हो सकते है ।सभी तीर्थंकर दीक्षा के उपरांत चावल एवं दूध से बनी हुई खीर का सेवन करते हैं ।
आचार्य श्री ने कहा बिखरे हुए देश समाज और परिवार के सामने स्वान भी शेर बन जाता है इसलिए एकता का परिचय दें । बिखरे हुए को एक करें, लोकतंत्र में एकता सबसे बड़ी शक्ति है । जिस समाज में एकता होती है वह समाज निखर जाती है, अतः बिखरे नहीं निखरे।आचार्य श्री ने कहा पूजन के बाद विसर्जन का अर्थ बुराइयों का ,बुरे विचारों का और बुरे कार्यों का विसर्जन करना है ,ना कि धर्म धर्मात्मा और भगवान की प्रतिमा का विसर्जन करना।गलतियां सबसे होती है दोष सबसे होते हैं। भ्रम सबसे ,सब में पैदा होते है, क्योंकि हम सब इंसान हैं भगवान नहीं भगवान के अंदर भ्रम पैदा नहीं होता है। भ्रम को दूर करना एक साधना है भ्रम दूर होने पर भगवान बन जाते है। भ्रम दूर होना ही सम्यक दर्शन है।

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