आचार्य श्री वर्धमान सागर जी की मंगल अगवानी..
दमोह। आचार्य श्री वर्धमान सागर जी महाराज के संघ सहित दमोह नगर पहुंचने पर जैन समाज के द्वारा भव्य अगवानी की गई। आचार्य संघ के धर्मपुरा नाका पहुंचने पर गाजे बाजों के साथ बड़ी संख्या में श्रावक गणों ने आचार्य संघ की मंगल अगवानी की संपूर्ण मार्ग में तोरण द्वार लगाए गए एवं जगह-जगह आचार्य श्री की पाद प्रक्षालन कर आरती उतारी गई। आचार्य संघ पुराने थाने से घंटाघर होते हुए जैन धर्मशाला पहुंचे मार्ग के बीच में आचार्य संघ ने पलंदी जैन मंदिर के भी दर्शन किए धर्म ध्वजा के साथ जयकारों से सारा वातावरण गुंजायमान हो गया।
इस मौके पर दिगंबर जैन पंचायत शाकाहार उपासना परिसंघ एवं कुंडलपुर क्षेत्र कमेटी के सदस्यगण अगवानी में सम्मिलित रहे इसके पूर्व महाराज श्री की आहारचर्या आमखेड़ा में संपन्न हुई और में वहां से पद बिहार करते हुए 12 किलोमीटर चलकर दमोह नगर पहुंचे संघ में अनेक वृद्ध साधु गढ़ जिनकी उम्र 70 एवं 80 वर्ष है वे भी इस कड़कड़ाती ठंड में युवा साधुओं के साथ तेज गति से चल रहे हैं दक्षिण भारत से सम्मेद शिखर की यात्रा करने के पश्चात उनका लक्ष्य नेमावर में विराजमान आचार्य विद्यासागर जी महाराज के दर्शन करना है अभी तक लगभग 2000 किलोमीटर की यात्रा पूर्ण हो चुकी है।
समायिक में सबसे बड़ा महत्वपूर्ण यह माध्यस्थ भाव है-वैज्ञानिक संत आचार्य निर्भय सागर जी महाराज
दमोह।जबलपुर नाका स्थित श्री दिगम्बर जैन पाश्र्वनाथ मंदिर में विराजमान वैज्ञानिक संत आचार्य श्री निर्भय सागर जी महाराज ससंघ के द्वारा शीत कालीन वाचना के द्वितीय दिवस सभी श्रावकों को अपने प्रवचनों के माध्यम से बताया कि साधु हमेशा समता भाव धारण करतं है। सभी पदार्थों के प्रति,सभी द्रव्यों, सभी जीवों के प्रति इसलिये साधु के हमेशा समायिक चारित्र होता है लेकिन ग्रहस्थ 24 घंटे में दिन में तीन बार समायिक के समय सभी राग, द्वेष, ईर्शा और मोह छोड़कर सभी के प्रति समता भाव रख कर बैठता है। इसलिये उसके समायिक व्रत होता है व्रत एक निश्चित समय के लिये होता है और चारित्र जीवन पर्यान्त के लिये। ऐंसे मुनिराज हमेशा सामायिक करते है।
आचार्य श्री ने बताया कि भावना के बगेेर कुछ नही होता पहले भाव होता है फिर कार्य होता है। आपकों मकान बनाना है तो पहले आपके दिमाग में मकान बनेगा फिर कागज में उसके बाद ही भूमि पर बनता है। मोक्ष मार्ग के रास्ते में बड़ने वाला इंसान अपनी आत्मा को भगवान बनाना चाहता है वह पहले अपना भाव बनाता है कि मुझे परमात्मा बनना है और उसके बाद वह सोचता है कि जब तक वो रत्नत्रय धारण नही करता तब तक परमात्मा नही बन बनेगें। वह शास्त्र से या गुरू मुख से देव शास्त्र गुरू के स्वरूप के स्वरूप का ज्ञान करता है। आचार्य श्री ने समायिक के संबंध में कहा कि पूजा भी समायक व्रत है। पूजा प्रभु और गुरू की सेवा है और महान तप है। जिस समय पूजा करते हैै समायक करते है उस समय माध्यस्थ भाव रहता है। पूजा में समायिक गर्भित हो जाती है लेकिन समायिक में पूजा गर्भित नही होती। जब पूजा करने बैठते है तब घर का त्याग रागद्वेश का त्याग हो जाता है समताभाव,भगवान बनने का भाव उत्पन्न हो जाता है गुणानुदान का भाव पैदा हो जाता है गुणानुदान का भाव पैदा होता है। किसी से बोलने का नही। जिस समय पूजा करते हो उस समय यदि कोई पूजन करने वाली आपके सामने की कटोरी ले जाये,तो मौन हो जाओ कटोरी ले जाने वाले से किसी भी प्रकार की कोई राग, द्वेश और इर्षा मन में नही लाओं और न ही कटोरी रूपी अपने मुह को खोलकर उससे अपशब्द कहो।


0 Comments