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गुरु के सामने शिष्य का और पिता के सामने पुत्र का मोह तोड़ जबाब नही देना चाहिये.. माता-पिता और दादा-दादी खुश रहेंगे तो शनि व गुरु ग्रह नुकसान नहीं पहुचा सकते.. वैज्ञनिक संत आचार्यश्री निर्भयसागर

अनजान पर जल्दी विश्वास नहीं करना चाहिये..
दमोह। वैज्ञानिक संत आचार्य निर्भय सागर जी ने कहा कि जैसे बरगद के बूढ़े पेड़ को शाखाओं से निकलने वाली जड़े उसे सहारा देती रहती है और बुढ़ापे का ऐहसास होने नही देती है, वैसे ही प्रत्येक इंसान को अपने बूढे माँ बाप को सहारा देकर बुढ़ापे का ऐहसास न हो पाए ऐसा प्रयास सन्तान को करना चाहिये। जैसे वे जड़ें उस वृक्ष के भार को उठा लेती है वैसे ही अपने वुजर्ग माता पिता एवं दादा-दादी की जिम्मेदारी के भार को अपने ऊपर ले लेना चाहिये। माता-पिता और दादा-दादी प्रशन्न रहेंगे तो शनि ग्रह एवं गुरु ग्रह को कुछ विगाड़ नही कर सकता। गुरु के सामने शिष्य का और पिता के सामने पुत्र का मोह तोड़ जबाब नही देना चाहिये। बल्कि हाथ जोड़कर सिर झुकाना चाहिये। यही विनय कर्तव्य और सम्मान उन्हें सर्वोच्च ऊँचाई तक ले जाता है। 
आचार्य श्री ने कहा माता-पिता लड़ना नही लाड करना सिखाते है। लाड करना एक प्रकार का धर्म है वात्सल्य भाव है जहाँ प्रेम वात्सल्य होता है। वहाँ से घृणा, नफरत अपने आप भाग जाती हैं। धर्म करने का उद्देश्य एक दूसरे को ऊपर उठाने का होना चाहिये, नीचे गिराने का नहीं। दुसरो को ऊपर उठाने वालों को दुनिया अपने सिर पर उठा लेती है और अपना सिर नीचे झुका लेती है। दुसरो को उठाने वाला एक दिन स्वयं परमात्मा बन जाता है। उसके जीवन मे जियो और जीने दो एवं अहिंसा परमो धर्म का सिदान्त जीवन मे उत्तर जाता है। आचार्य श्री ने कहा जैसे हमारे शरीर के इम्यूनिटी क्रमशः घटती चली जाती है अथवा जैसे फ्रेस, प्लाष्टिक दाने से शुद्ध वस्तु अधिक शक्तिशाली होति है। लेकिन कुछ दिन बाद टूट जाने पर पुनः ढाल कर बनाई जाती है उसकी शक्ति क्षीर्ण हो जाती है। वैसे ही जब कोई कोरोना आदि वायरस नया आता है तो उसकी शक्ति ज्यादा होती है लेकिन जब उस वायरस से नये वायरस पैदा होते है तो वे शक्तिहीन हो जाते है। इस लिए कोरोना वायरस की शक्ति कुछ कम हो गई है अतः कोरोना वायरस से डरने की बात नही बल्कि सावधान रहने की बात है इससे लड़ने के लिये अपनी इम्यूनिटी (शारीरिक क्षमता) बढ़ाना चाहिये। 

आचार्य श्री ने कहा कोरोना वायरस आज से 6 माह पूर्व अनजान था। अनजान मनुष्य हो या कोई वस्तु उस पर विश्वास जल्दी नही करना चाहिये और रजाने हुए पर संदेह नही करना चाहिये क्योकि अनजान पर विस्वास करने से सब खोना पड़ता है और जाने हुए पर संदेह करने से रोना पड़ता है। आचार्य श्री ने कहा कंजूस वह है जिसके पास धन हो परन्तु परोपकार या दान के नाम पर छूटता नही है, बीमार वह है जिसके पास भोजन है परंतु खाने पचाने की शक्ति नही है। संसार की यही विडम्बना है कि जिसके पास दाम नही है, उसके दान देने की भावना होती है और जिसके पास दाम बहुत है, पर दान देने की भावना नही है। आचार्य श्री ने कहा वैरागी के जीवन मे सन्तोष ही परम है अधिक धन का लोभ इंसान को खा जाता है और अन्याय अनीति के मार्ग पर ले जाता है इसीलिए धन के लोभ को सीमित करना चाहिये और ज्ञान के लोभ को बढ़ाना चाहिये। उस दुनिया मे सुधारने वाले कम और विगड़ने वाले ज्यादा होते है।

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