उपाध्याय परमेष्ठी शिक्षा तो दे सकते है पर दीक्षा नही
आचार्य श्री ने कहा लक्ष्य की प्राप्ति हो जाना अथवा मंजिल तक पहुँच जाने का नाम सफलता है। किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिये अथवा मंजिल प्राप्त करने के लिये उसके सपने देखे जाते है। उस मंजिल पाने की कल्पना की जाती है या विचार होता है वही सपना कहलाता है। सपना देखोगे तभी साकार होगा। जब कल्पना करोगें विचारों में ऊर्जा लाओगे तभी गति मिलेगी। पहले विचारों को गति दी जाती है फिर कदमो को गति दी जाती है, तव मंजिल तक पहुँच सकते है जैसे किसी भवन का निर्माण करने के पूर्व पहले विचारों में नक्सा बनता है, फिर मतिष्क में बनता है उसके बाद हाथों को गति मिलती है और कागज पर नक्सा बनता है। जो कल्पना की थी वह कागज पर साकार हुईं उसके बाद शिल्पकार उसे वास्तिवक आकर देता है और इमारत खड़ी कर देता है। ईट, चुना, पत्थर मंजिल का आकार ले लेता है।
दमोह। वैज्ञानिक संत आचार्य श्री निर्भय सागर जी ने कहा दीक्षा देने का अधिकार आचार्यो को होता है, दीक्षा के साथ उपाध्याय के समान शिक्षा का कार्य भी आचार्य करते है। उपाध्याय परमेष्ठी शिक्षा तो दे सकते है पर दीक्षा नही। आचार्य और उपाध्याय दोनो ही गुरु कहलाते है। आचार्य दीक्षा गुरु कहलाते है और उपाध्याय शिक्षा गुरु कहलाते है। इनकी भक्ति करने से तीर्थकर बन सकते है। गुरु परम्परा अलग होती है, उसे कुल परम्परा भी कहते है, गुरु परम्परा आगम शास्त्र के अनुसार चलना चाहिये।आचार्य श्री ने कहा यदि गुरूओ से भी हम मंजिल पूछते है लेकिन मंजिल का रास्ता नही पूछते तो मंजिल तक नही पहुँच सकते, लेकिन मार्ग के बिना ओर चले बिना मंजिल नही मिलती। मंजिल पाने के लिये सही रास्ता और सही पुरुषार्थ आवश्यक है। मोक्ष मार्ग में चलने वाले साधक के लिये मार्ग में राग, दोष, मोह गुप्तचर या लुटेरे के रूप में बैठे है। जिसके पास सम्यक ज्ञान का प्रकाश होता है वह उन लुटेरों से बच जाता है लेकिन जिस के पास ज्ञान का प्रकाश नही होता वह अज्ञान और मिथ्यात्व के अंधकार में लूट जाता है, मिट जाता है और लौटकर पुनः चौरासी के चक्कर मे पड़ जाता है जिस मार्ग पर चलकर मंजिल प्राप्त करना उस मार्ग का पहले ज्ञान होना जरूरी है। आचार्य श्री ने कहा रास्ता चलने के लिये होता है रुकने के लिए नही। रास्ते पर रुकने से दूसरों को भी परेशानियां खड़ी हो जाती है इसलिए रास्ता गति का सूचक है। इस पर चलते रहना चाहिए। जिंदगी भी गति की सूचक है। जहाँ आदमी रुक जाता है वहाँ जिंदगी समाप्त हो जाती है।
आचार्य श्री ने कहा लक्ष्य की प्राप्ति हो जाना अथवा मंजिल तक पहुँच जाने का नाम सफलता है। किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिये अथवा मंजिल प्राप्त करने के लिये उसके सपने देखे जाते है। उस मंजिल पाने की कल्पना की जाती है या विचार होता है वही सपना कहलाता है। सपना देखोगे तभी साकार होगा। जब कल्पना करोगें विचारों में ऊर्जा लाओगे तभी गति मिलेगी। पहले विचारों को गति दी जाती है फिर कदमो को गति दी जाती है, तव मंजिल तक पहुँच सकते है जैसे किसी भवन का निर्माण करने के पूर्व पहले विचारों में नक्सा बनता है, फिर मतिष्क में बनता है उसके बाद हाथों को गति मिलती है और कागज पर नक्सा बनता है। जो कल्पना की थी वह कागज पर साकार हुईं उसके बाद शिल्पकार उसे वास्तिवक आकर देता है और इमारत खड़ी कर देता है। ईट, चुना, पत्थर मंजिल का आकार ले लेता है।
आचार्य श्री ने कहा कल्पना को साकार करने के लिए श्रम की पगडंडियो से गुजरना पड़ता है। तन, मन धन प्रयत्न करना पड़ता है। कार्य की सफलता के लिये प्रयत्न करना पड़ता है, प्रयत्न का नाम ही पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ की ईटो से जीवन का महल खड़ा होता हैं। लेकिन पुरु षार्थ की रहा में दिक्कत के रोड़़े आते है उन्हे हटाना पड़ता है। जो उन्हे हटाता है वही कर्म वीर कहलाता है। इसीलिए उन्होंने कहा या आचार्य श्री ने कहा कर्मवीर के आगे पथ का हर पत्थर साधक होता है। दीवारे भी दिशा बताती जब साधक आगे होता है।



0 Comments