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जीवन मौज मस्ती विषय भोग, सुख सुविधाये मिल जाने से धन्य नही होता है.. भव्य जीव धर्म के फल स्वरूप आत्म कल्याण चाहता है.. वैज्ञानिक संत आचार्य श्री निर्भय सागर जी महाराज..

भव्य जीव धर्म के फल स्वरूप आत्म कल्याण चाहता है..
दमोह। वैज्ञानिक संत आचार्य निर्भय सागर जी ने कहा तुम्हारी अंतेष्टि निकले उसके पूर्व परमेष्ठी की शरण मे चले जाना, मरण भी वीर मरण हो जायेगा और जीवन धन्य हो जायेगा। जीवन मौज मस्ती विषय भोग, सुख सुविधाये मिल जाने से धन्य नही होता है। जो धर्म करते हुऐ भी विषय भोगों को चाहता है और पाप कर्म को नही धोना चाहता वह अभव्य जीव कहलाता है, जैन धर्म मे अभव्य उसे कहा जाता है जो कभी मोक्ष नही जा सकता और परमात्म पद को प्राप्त नही कर सकता। 
 
भव्य जीव धर्म के फल स्वरूप आत्म कल्याण चाहता है, गुणों की प्राप्ति हेतु सन्तो की संगति करता है, हमारे अंदर जो विचार, चिंतन और भावना की धारा चलती है उसे दुसरो से पूछने की जरूरत नहीं वह स्वयं को अनुभूति में आती है, दुसरो को दिखाई नही देती है।आचार्य श्री ने कहा घी, दूध, दही और इच्छु रस ये इस धरती पर अमृत है और भगवान की वाणी के साथ गुरु की वाणी भी अमृत है गुरु की अमृत वाणी को कानों से पीया जाता है। जैसे नींबू खटाई के संयोग से दूध फट जाता है वैसे ही मूर्ख मिथ्यादृष्टि की संगति में आने से प्रेम का क्षीर और दिल फट जाता है इस लिये ऐसे लोगो की संगति से दूर रहना चाहिये। वाणी ऐसी बोलना चाहिये जिससे एक दूसरे के दिल न फटे। क्योंकि -
   *दूध फटा सो घी गया,*
    *मन फटा गई प्रीत।*
   *हीरा फटा कीमत गई,*
    *यही जगत की रीति।* 
आचार्य श्री ने कहा वाणी की मिठास स्वर्ग के अमृत से भी अधिक मीठी होती है। जिसको आत्मा का रस आने लगता है उसे इन्द्रिय भोगों का रस फीका लगने लगता है , वह बाहर की प्रवत्ति छोड़कर और भीतर विकल्प जाल को छोड़कर संसार से विरक्क्त होकर निर्वत्ति में चला जाता है और आत्मा के में रमण करने लगता है। आत्मा में रमण करना और उसका स्वाद ले लेना कठिन है विषय भोगों का स्वाद लेना अति सरल कार्य है वह तो पशु पक्षी भी ले लेते है। आचार्य श्री ने कहा आत्मा की बात आत्ययोगी से पूछना चाहिये भोगियों से नही। इस प्रंसग पर उन्होंने कहा 
*अंधों से सूर्य का प्रकाश मत पूछो।*
*वहरो से मेरे गीत के लय, छंद, ताल मत पूछो।*
*कैसे बनती है आत्मा ही परमात्मा।*
*यह बात तुम रागियों से मत पूछो।*
आचार्य श्री ने कहा कि आत्म ध्यान में डूबे संत को शरीर का भान ही नही होता जब कर्म धारा से ज्ञान धारा में सन्त उतर जाते है तो परमात्मा से परिचय प्राप्त कर लेते है। परमात्मा से परिचय करते करते और अपनी आत्मा का परमात्मा के रूप में घ्यान करते करते एक दिन स्वयं परमात्मा बन जाते है। जैसे नेता की संगति मे लगे रहने पर स्वयं नेता बन जाते है। आचार्य श्री ने कहा सन्तो को निंदा करने वाले जिंदा होकर भी मुर्दा है। सच्चे सन्त निंदा करने वालो को भी अपना शत्रु न मानकर मित्र मानते है। क्योकि वे निंदा करके हमारे अंदर की गंदगी को निकाल कर सफाई करने वाले कर्मचारी बन रहे है। ऐसे साधु जो साधना में लगे होते है वे  नोका के समान होते है, वे इस संसार सागर से दुःख से स्वयं पार होते है और दूसरों को भी स्वयं पार लगाते है।

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