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जैन धर्मशाला में 16 दिन से चल रहे शांति विधान का रविवार को प्रातः हवन एवं पुण्यह वाचन के साथ होगा समापन.. जहां श्रद्धा और समर्पण होता है वहां प्रेम वात्सल्य एवं सेवा का भाव प्रकट होता है- आचार्य श्री निर्भय सागर..

 कोरोना महामारी की दुनिया से समाप्ति हेतु विधान 

दमोह। वैज्ञानिक संत आचार्य श्री निर्भय सागर जी महाराज के स शासन संघ सानिध्य में निरंतर 16 दिन से चल रहा शांति विधान कल रविवार को प्रातः हवन एवं पुण्यह वाचन के साथ समापन होगा। आचार्य श्री के सानिध्य में यह विधान कोरोना महामारी की दुनिया से समाप्ति हेतु किया गया और जो कोरोना से पीड़ित हैं उन की निरोग के लिए किया गया। 

आचार्य श्री ने उपदेश देते हुए कहा विज्ञान तर्क से पैदा होता है और अध्यात्म श्रद्धा से पैदा होता है। श्रद्धा हृदय से पैदा होती है। विज्ञान मस्तिक से पैदा होता है। मस्तिक से बुद्धि और तर्क पैदा पैदा होता है। तर्क से भ्रम और उलझन पैदा होती है। लेकिन बुद्धि का विकास भी मस्तिक से से होता है। श्रद्धा के मार्ग में तर्क नहीं चलता है। श्रद्धा में समर्पण चलता है। जहां श्रद्धा और समर्पण होता है वहां प्रेम वात्सल्य एवं सेवा का भाव प्रकट होता है। आज भौतिकवादी युग में श्रद्धा, प्रेम समर्पण और सेवा का भाव कम होता जा रहा है। श्रद्धा और अध्यात्म से जहां संतोष सुख और शांति मिलती है वहां वैज्ञानिक तर्क वितर्क से उलझन तनाव, अशांति और दुख मिलता है। सुख शांति के लिए अध्यात्म की शरण में जाना होगा। 

आचार्य श्री ने कहा पूजा भक्ति एवं दान के कार्य में श्रद्धा विवेक और सही क्रिया होना चाहिए। दान पूजा की क्रिया करने वाला व्यक्ति मन वचन काया से शुद्ध होना चाहिए। आचार विचार से शुद्ध होना चाहिए। मन से दुखी नहीं बल्कि सुखी और संतोषी होना चाहिए। श्रद्धा, भक्ति, सत्य, दया, क्षमा, विवेक, संतोष से सहित होना चाहिए। दान, पूजा, भक्ति इत्यादि धार्मिक क्रिया छल, कपट, मूडता और अविवेक से रहित होना चाहिए।

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