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युगल मुनिराज मुनि श्री सुदत्तसागर जी एवं मुनि श्री सोमदत्त सागर महाराज का दीक्षा दिवस मनाया.. इंद्रिय दमन और कषायों के समन का नाम दीक्षा है.. वैज्ञानिक संत आचार्य श्री निर्भय सागर..

 युगल मुनिराज का दीक्षा दिवस मनाया गया..

दमोह। वैज्ञानिक संत आचार्य श्री निर्भय सागर जी महाराज नो मुनियों के साथ जैन धर्मशाला दमोह में अपना 35 वां चातुर्मास संपन्न कर रहे हैं । गत वर्ष सागर में आचार्य श्री का चातुर्मास हुआ था । उस समय मुनि श्री सुदत्तसागर जी एवं मुनि श्री सोमदत्त सागर महाराज की मुनि दीक्षा, श्री पदम प्रभु दिगंबर जैन तपोवन तीर्थ बहेरिया तिगड्डा गदगद पहाड़ी सागर में हुई थी। मुनि श्री सूदत्त सागर जी महाराज गुना के निवासी थे एवं सोमदत्त सागर जी महाराज बनारस के पास मछवां ग्राम के निवासी थे। आज उनके दीक्षा दिवस पर सर्वप्रथम महिला मंडल द्वारा मंगलाचरण किया गया । कुमारी मानसी जैन ने स्वागत गीत प्रस्तुत किया।नन्हे मंदिर की पाठशाला के बालक बालिकाओं द्वारा दोनों मुनियों के जीवन चरित्र पर नाटिका प्रस्तुत की गई । नाटिका आकर्षण का केंद्र थी ।सभी लोगों ने बहुत सराहना की। 
आचार्य श्री निर्भय सागर जी महाराज के चरणों का अभिषेक करने का सौभाग्य समाजसेवी संतोष भारती एवं अन्य साधु के चरणों का अभिषेक करने का सौभाग्य गिरीश नायक, ऋषभ जैन बड़ेराय, टीकमगढ़ निवासी यतींद्र जैन, अनिल कुमार मावा एवं दीपक सिंघई को प्राप्त हुआ ।  इस अवसर पर सभी मुनियों को शास्त्र भेंट किया गया। जिसका सौभाग्य नवकार महिला मंडल, श्रीमती क्षमा लहरी, सौरभ जैन पारस भवन, नेमचंद बजाज, अजय कुमार खजरी, अभिषेक खजरी, अरविंद मुंशी, सुशील कुमार मैनेजर, अमन गिरीश नायक, चमेली बाई बड़कुल एवं पंडित अखिलेश जैन को  प्राप्त हुआ। शास्त्र भेंट एवं अभिषेक के उपरांत संगीत में पूजा की गई। कार्यक्रम का संचालन पंडित रमेश चंद जी शास्त्री , मास्टर प्रमोद गागरा एवं संतोष अविनाशी ने किया।

 इस प्रसंग पर आचार्य श्री निर्भय सागर जी महाराज ने कहा इंद्रियों का दमन करना, कसाय का समन करना दीक्षा कहलाती है । जब संसार में ई एन डी -एंड अर्थात बस बस बस अब नहीं भोगना ऐसा विचार आता है तब वैराग्य की ओर कदम बढ़ते हैं ।जब ए एन डी -एंड अर्थात और और और भोगने का एवं संग्रह करने का मन में विचार आता है तब राग की ओर कदम बढ़ते हैं । राग आग के समान होती है ,जो जीव को अंदर से जलाती है ।
आचार्य श्री ने साधु का परिवार बतलाते हुए कहा अहिंसा साधु की माता है, ध्यान पिता है, ब्रह्मचर्य भाई है, अनासक्ति बहन है, शांति पत्नी है , विवेक पुत्र है, क्षमा पुत्री है, सत्य मित्र है, यही साधु का परिवार है । ऐसे परिवार में रहने वाला साधु परमात्मा से रिश्तेदारी बनाता है और एक दिन परमात्मा के निकट सिद्ध प्रभु की नगरी में पहुंच जाता है। यही उद्देश साधु बनने का होता है ।जो साधु सांसारिक सुख सुविधाओं और ख्याति पूजा लाभ के लिए बनते हैं वे साधु लक्ष्य से भटक जाते हैं और पतित हो जाते हैं। साधु के पतन होने पर देश समाज धर्म गुरु और परिवार की बदनामी होती है। इसलिए साधु को सही कार्य करना चाहिए।

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